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जब स्टारडम बोझ बन गया: राजेश खन्ना ने खुद चाही फ्लॉप फिल्में, ‘महबूबा’ से टूटा करियर
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हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना की ज़िंदगी में एक ऐसा समय भी आया, जब असीम लोकप्रियता, लगातार गिरता करियर और फिल्म ‘महबूबा’ की असफलता ने उन्हें मानसिक संकट तक पहुंचा दिया।
हिंदी सिनेमा के इतिहास में राजेश खन्ना का नाम एक ऐसे सुपरस्टार के रूप में दर्ज है, जिन्होंने लोकप्रियता की वह ऊंचाई देखी, जहां पहुंचना हर कलाकार का सपना होता है। लेकिन इसी चमक-दमक के बीच एक दौर ऐसा भी आया, जब राजेश खन्ना खुद चाहते थे कि उनकी कुछ फिल्में न चलें। यह बात उनके जीवन के उस कठिन समय को उजागर करती है, जब शोहरत उनके लिए सुकून नहीं, बल्कि बोझ बन गई थी।
1970 के दशक की शुरुआत में राजेश खन्ना का करियर अपने शिखर पर था। लगातार 17 हिट फिल्मों का रिकॉर्ड, फैंस की दीवानगी और इंडस्ट्री में बेजोड़ दबदबा—हर ओर काका का ही नाम था। शूटिंग लोकेशन पर भीड़ उमड़ पड़ती थी और निर्माता-निर्देशक उनकी एक हां के लिए महीनों इंतजार करते थे। लेकिन यही लोकप्रियता धीरे-धीरे उनके निजी जीवन में बेचैनी का कारण बनने लगी।
यासिर उस्मान की किताब ‘द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ इंडिया’s फर्स्ट सुपरस्टार’ के मुताबिक, राजेश खन्ना अपनी बढ़ती प्रसिद्धि से घबराने लगे थे। हर वक्त घिरे रहना, निजी जीवन का अभाव और अपेक्षाओं का दबाव उन्हें मानसिक रूप से थकाने लगा। इसी दौर में उन्होंने यह इच्छा जताई कि कुछ फिल्में फ्लॉप हों, ताकि उनके चारों ओर बना शोर थोड़ा कम हो सके।
हालांकि समय ने यहां एक अलग ही करवट ली। साल 1976-77 राजेश खन्ना के करियर के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण साबित हुआ। 1976 में रिलीज हुई फिल्म ‘महबूबा’, जिसमें उनके साथ हेमा मालिनी थीं, बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह असफल रही। यह फिल्म न केवल आर्थिक रूप से फ्लॉप हुई, बल्कि इसे काका के करियर की बड़ी आपदाओं में गिना गया। इसके बाद ‘बंडल बाज’, ‘अनुरोध’, ‘त्याग’, ‘कर्म’, ‘छैला बाबू’ और ‘चलता पुर्जा’ जैसी फिल्मों की असफलता ने हालात और बिगाड़ दिए।
इसी बीच हिंदी सिनेमा में बदलाव का दौर शुरू हो चुका था। अमिताभ बच्चन का ‘एंग्री यंग मैन’ अवतार दर्शकों को आकर्षित कर रहा था और धर्मेंद्र भी युवाओं की नई पसंद बन चुके थे। बदलते ट्रेंड में राजेश खन्ना खुद को अकेला महसूस करने लगे। रिपोर्ट्स के मुताबिक, लगातार असफलताओं के चलते वह डिप्रेशन में चले गए और शराब की ओर झुकाव बढ़ा।
किताब में यह भी उल्लेख है कि इस दौर में उनके मन में आत्मघाती विचार तक आने लगे थे। रात के समय बेचैनी, गुस्से और चीखने की घटनाएं उनके मानसिक संघर्ष को दर्शाती हैं। हालांकि, यह भी सच है कि इस अंधेरे दौर के बावजूद राजेश खन्ना ने पूरी तरह हार नहीं मानी और बाद के वर्षों में उन्होंने सशक्त सहायक भूमिकाओं के जरिए अपनी मौजूदगी दर्ज कराई।
राजेश खन्ना की यह कहानी केवल एक सुपरस्टार की गिरावट नहीं, बल्कि उस मानवीय संघर्ष की दास्तान है, जो शोहरत के पीछे अक्सर अनदेखा रह जाता है। उनकी जिंदगी आज भी यह सवाल छोड़ जाती है कि क्या सफलता हमेशा सुख देती है, या कभी-कभी वह सबसे बड़ा इम्तिहान बन जाती है।
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