"नेतागिरी का मोह और अनदेखी का दर्द: मध्यप्रदेश में युवा राजनीति की हकीकत"

Opinion By Devendra Patel

✍🏻 देवेंद्र पटेल 'मप्र'

"राजनीति में जाना है, लेकिन घर में गैस का सिलेंडर उधारी में आता है।
जिन नेताओं की तस्वीरें पोस्टर पर लगाता हूँ, वो मुझे पहचानते तक नहीं।
पर क्या करें... नेतागिरी दिल की बात है।"

यह सिर्फ एक युवा कार्यकर्ता की पीड़ा नहीं, बल्कि मध्यप्रदेश के सैकड़ों उभरते युवा नेताओं की कहानी है, जो आज भी झंडा ढोने से लेकर भीड़ जुटाने तक सब करते हैं, लेकिन जब मंच पर बैठने की बारी आती है तो उन्हें "बेटा, अभी बहुत समय है" कहकर किनारे कर दिया जाता है।

मध्यप्रदेश में युवा राजनीति एक ऐसा जलता हुआ मैदान बन चुकी है, जहां हर कदम पर हौसले की अग्निपरीक्षा होती है। गांव की गलियों से निकलकर जिलों के पार्टी दफ्तरों तक पहुंचने वाले ये युवा न नेता कहलाते हैं, न कार्यकर्ता—बल्कि “राजनीति के श्रमिक” बन चुके हैं।
वे न जमीन के मालिक होते हैं, न टिकट के वारिस, फिर भी झंडा सबसे ऊँचा इन्हीं के हाथों में होता है।

बड़े नेता, छोटा अपनापन

आज की सच्चाई यह है कि बड़े नेता युवाओं को पसंद करते हैं—लेकिन दूर से
वो चाहते हैं कि युवा सभा में भीड़ बनें, सोशल मीडिया में ट्रेंड करें, और चुनाव में प्रचार का चेहरा बनें।
पर जब बात टिकट, मंच या भागीदारी की आती है—तो ‘बेटा तू अभी सीख ले’, ‘तेरा समय आएगा’ जैसे जुमलों से बात टाल दी जाती है।

युवा नेता का संघर्ष पार्टी की दीवारों पर पोस्टर बनकर चिपक जाता है, पर कभी घोषणा-पत्र का हिस्सा नहीं बन पाता।


घर की थाली, पोस्टर का खर्च

इन युवा नेताओं के घरों में अक्सर हालात अच्छे नहीं होते।

  • मां सिलाई करती है,

  • बाप बीमार है या मजदूर,

  • और छोटा भाई पूछता है, "भैया, तुम नेता हो तो घर का राशन क्यों उधार आता है?"

फिर भी ये युवा पोस्टर छपवाते हैं, बैनर लगवाते हैं, सोशल मीडिया मैनेजमेंट कराते हैं—और वो भी अपने खून-पसीने के पैसों से।

कई बार ये राजनीति रोज़गार नहीं, बोझ बन जाती है, लेकिन उम्मीद का सूरज डूबता नहीं।


गुटबाज़ी में गुम युवा नेतृत्व

मप्र की राजनीति में सबसे बड़ी विडंबना ये है कि यहां ‘योग्यता’ नहीं, ‘गुट’ चलता है
किसी मंत्री के नज़दीक हो तो जिलाध्यक्ष भी बन जाओ, और अगर नहीं हो, तो बेस्ट कार्यकर्ता होकर भी ‘सहयोगी’ बने रहो।
इस गुटबाज़ी ने सैकड़ों युवा नेताओं को या तो तोड़ दिया, या सिस्टम से बाहर धकेल दिया।

आज का सच ये है कि युवा नेता अकेला है—वो अपने ही संगठन में असहाय है, और अपने ही समाज में 'नालायक' माना जाता है।


सोशल मीडिया की झूठी राजनीति

राजनीति अब मेनिफेस्टो या आंदोलन की नहीं, रील्स और फॉलोवर्स की हो गई है।
एक युवा नेता का काम है—

  • मंत्री जी के साथ फोटो लेना,

  • फेसबुक पर 'दिल से धन्यवाद' लिखना,

  • और इंस्टाग्राम स्टोरी में 'हमेशा साथ' का स्टिकर चिपकाना।

यह दिखावटी सहभागिता युवा नेता को 'सज्जा सामग्री' बना देती है, रणनीतिकार नहीं।


आत्मा से राजनीति, पेट से भूख

युवा नेताओं की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि उनके पास सपने हैं, रणनीति है, भाषण है—पर पेट के लिए कुछ नहीं
ना स्थायी रोजगार, ना वित्तीय सहायता।
अगर घर का सहारा न हो, तो यह नेतागिरी सिर्फ़ दो साल में 'कड़वाहट' बन जाती है।
बहुत से युवा वापस प्राइवेट नौकरी या फिर चुपचाप नौकरी की तैयारी में लौट जाते हैं—इस बार बिना किसी पोस्टर, बिना नारे।


आगे क्या? समाधान की बात

  1. प्रशिक्षण और संरचना
    युवा नेताओं के लिए पार्टी स्तर पर नेतृत्व प्रशिक्षण और पॉलिटिकल इंटर्नशिप अनिवार्य होनी चाहिए।

  2. स्थानीय स्तर पर अवसर
    नगर निगम, पंचायत, युवा मोर्चा जैसे स्तरों पर टिकट और पदों में 50% प्रतिनिधित्व युवाओं को देना चाहिए

  3. पारिवारिक सहारा
    यदि कोई युवा राजनीति में है, तो उसके परिवार को न्यूनतम सरकारी सहायता या पार्टनरशिप मिले, ताकि उसका संघर्ष ‘घर और मैदान’ दोनों जगह संतुलित रहे।

  4. राजनीति को करियर बनाने का मंच
    जैसे आईएएस या सेना में करियर होता है, वैसे ही पार्टियों को राजनीति को करियर रूपी ढांचा देना होगा।


राजनीति का भविष्य चुप क्यों है?

मध्यप्रदेश के युवा नेता आज केवल नारे नहीं दे रहे, वे जमीनी राजनीति के उस कालखंड से गुजर रहे हैं, जो न इतिहास में दर्ज है, न टीवी की डिबेट में।
वे एक ऐसा युवा वर्ग हैं जो संघर्ष करता है लेकिन बोलता नहीं, दिखता है लेकिन सुनाई नहीं देता।

अगर ये स्थिति नहीं बदली तो, राजनीति का अगला दौर सिर्फ़ अमीर घरों के वारिसों का उत्सव बनकर रह जाएगा।
लेकिन अगर इस युवा को मंच मिला, तो मध्यप्रदेश राजनीति में एक नई हवा बहेगी—जहां नेता बाप से नहीं, संघर्ष से बनेंगे।


देवेंद्र पटेल 'मप्र'
(स्वतंत्र लेखक)

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