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26 साल की कानूनी लड़ाई झेलने वाले उपभोक्ता को मिलेगा मुआवजा और नया प्लॉट....उपभोक्ता आयोग का आदेश
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मध्यप्रदेश राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग, भोपाल ने एक ऐतिहासिक निर्णय में हाउसिंग बोर्ड को लापरवाही का दोषी मानते हुए उपभोक्ता को 25 लाख रुपये क्षतिपूर्ति और वैकल्पिक भूखंड देने का आदेश दिया है। मामला वर्ष 1986 में हुए एक भूखंड आवंटन से जुड़ा है, जिसमें प्रशासनिक गड़बड़ी के कारण शिकायतकर्ता को तीन दशक तक अदालतों में भटकना पड़ा।
साल 1989 में अचानक एक नोटिस मिला। राधा मोहन शर्मा नाम के एक अन्य व्यक्ति ने दावा किया कि त्रिपाठी ने उसके भूखंड – एल-105 – पर मकान बना लिया है। मामला कोर्ट पहुंचा और शुरू हुई एक लंबी कानूनी लड़ाई।
सिविल कोर्ट से होते हुए ये मामला हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट तक गया… और हर स्तर पर निर्णय त्रिपाठी के खिलाफ गया। आखिरकार, 2015 में उन्हें अपना पूरा मकान गिराना पड़ा… वो भी तब, जब लीज उनके नाम थी और बोर्ड ने खुद उन्हें कब्जा दिया था।
दरअसल, शिकायतकर्ता बालकृष्ण त्रिपाठी को भोपाल के नेहरू नगर में प्लॉट एल-107 आवंटित किया गया था। उन्होंने लोन लेकर मकान भी बना लिया। लेकिन बाद में सामने आया कि सीमांकन की गलती के चलते उन्होंने असल में एल-105 पर निर्माण कर लिया था। उस प्लॉट पर एक अन्य व्यक्ति का दावा था, जिसे अदालतों ने सही माना। त्रिपाठी को मकान खाली करना पड़ा और मानसिक व आर्थिक क्षति हुई।
हाउसिंग बोर्ड की गलती
आयोग के सामने यह तथ्य आया कि हाउसिंग बोर्ड ने सिर्फ 5 भूखंडों की ज़मीनी हकीकत में सीमांकन किया था, लेकिन 7 लोगों को आवंटन कर डाला। इसी त्रुटिपूर्ण प्रक्रिया के कारण त्रिपाठी को गलत भूखंड पर कब्जा मिल गया। इस बात को खुद हाउसिंग बोर्ड ने 2014 में स्वीकारते हुए सीमांकन संशोधित किया था।
शिकायतकर्ता की मांग और आयोग का मूल्यांकन
मांगें (कुल ₹99.68 लाख)
त्रिपाठी ने आयोग में निम्न क्षतिपूर्तियां मांगीं –
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₹68.60 लाख भूखंड की बाजार लागत
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₹20.58 लाख निर्माण लागत
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₹10 लाख मानसिक पीड़ा हेतु
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₹50,000 मुकदमा व्यय
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या फिर वैकल्पिक रूप से उसी क्षेत्रफल का नया भूखंड
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आयोग का आदेश
आयोग ने बोर्ड की गलती को "सेवा में कमी और अनुचित व्यापार व्यवहार" करार दिया। साथ ही यह निर्देश दिया कि दो महीने के भीतर या तो 28x49 वर्गफुट का वैकल्पिक भूखंड दिया जाए या वर्तमान बाजार दर पर मूल्य चुकाया जाए। साथ ही, मानसिक और सामाजिक पीड़ा के लिए 25 लाख रुपये और मुकदमा खर्च के रूप में 10 लाख रुपये अतिरिक्त दिए जाएं।
समय-सीमा का तर्क अस्वीकार
हाउसिंग बोर्ड ने मामले को समय-सीमा के बाहर बताया, लेकिन आयोग ने स्पष्ट किया कि बोर्ड की 2014 की स्वीकारोक्ति के बाद मामला फिर से वैध हो गया था।
शिकायतकर्ता की तरफ से वरिष्ठ अधिवक्ता दीपेश जोशी ने पेरवी की।