डायबिटीज बताकर बीमा दावा खारिज करना गलत: उपभोक्ता फोरम का बीमा कंपनी को आदेश, 2.18 लाख चुकाने होंगे

ग्वालियर (म.प्र.)

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ग्वालियर उपभोक्ता आयोग ने कहा—पॉलिसी से पहले बीमारी छिपाने का ठोस सबूत नहीं, दावा खारिज करना सेवा में कमी

जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोषण आयोग, ग्वालियर ने एक अहम फैसले में बीमा कंपनियों की मनमानी पर रोक लगाते हुए स्वास्थ्य बीमा दावा खारिज करने को सेवा में कमी माना है। आयोग ने आदित्य बिरला हेल्थ इंश्योरेंस कंपनी को निर्देश दिया है कि वह बीमाधारक को इलाज में खर्च हुई 2 लाख 18 हजार 912 रुपये की राशि 45 दिनों के भीतर अदा करे। समय सीमा में भुगतान नहीं करने पर कंपनी को आदेश की तिथि से छह प्रतिशत वार्षिक ब्याज भी देना होगा।

यह फैसला ग्वालियर निवासी सुरेश शर्मा द्वारा दायर उपभोक्ता परिवाद पर सुनाया गया। परिवाद के अनुसार, उनकी पत्नी 13 अगस्त 2024 को एक सड़क दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हो गई थीं। प्राथमिक उपचार के बाद उनकी हालत बिगड़ने पर 15 अगस्त को उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां 19 अगस्त तक इलाज चला। इस दौरान इलाज पर कुल 2.18 लाख रुपये से अधिक का खर्च आया।

सुरेश शर्मा ने अपनी वैध हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी के तहत बीमा कंपनी के समक्ष दावा प्रस्तुत किया, लेकिन कंपनी ने यह कहते हुए दावा निरस्त कर दिया कि बीमाधारक की पत्नी को पॉलिसी लेने से पहले से डायबिटीज थी। कंपनी का तर्क था कि यह बीमारी ‘प्री-एक्जिस्टिंग डिजीज’ की श्रेणी में आती है और प्रस्ताव पत्र भरते समय इसकी जानकारी छिपाई गई, जिससे पॉलिसी शर्तों का उल्लंघन हुआ है।

मामले की सुनवाई के दौरान आयोग ने बीमा कंपनी के तर्कों को अस्वीकार कर दिया। आयोग ने स्पष्ट रूप से कहा कि केवल बीमारी का हवाला देकर दावा खारिज नहीं किया जा सकता। बीमा कंपनी की जिम्मेदारी है कि वह यह साबित करे कि पॉलिसी लेते समय बीमाधारक ने जानबूझकर बीमारी की जानकारी छिपाई थी। आयोग के अनुसार, कंपनी इस संबंध में कोई ठोस मेडिकल रिकॉर्ड, पूर्व उपचार का प्रमाण या विश्वसनीय दस्तावेज प्रस्तुत करने में असफल रही।

आयोग ने अपने आदेश में कहा कि सड़क दुर्घटना के बाद कराया गया इलाज डायबिटीज से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा नहीं था। ऐसे में बीमा कंपनी द्वारा दावा अस्वीकार करना अनुचित और उपभोक्ता हितों के विरुद्ध है। आयोग ने इसे बीमा सेवा में गंभीर कमी माना।

कानूनी जानकारों का कहना है कि यह फैसला उपभोक्ताओं के अधिकारों को मजबूत करता है और बीमा कंपनियों को यह संदेश देता है कि वे बिना पुख्ता आधार के दावे खारिज नहीं कर सकतीं। अक्सर बीमा कंपनियां ‘प्री-एक्जिस्टिंग डिजीज’ का हवाला देकर दावे रोक देती हैं, जिससे उपभोक्ताओं को आर्थिक और मानसिक परेशानी का सामना करना पड़ता है।

उपभोक्ता आयोग का यह आदेश न केवल ग्वालियर बल्कि पूरे प्रदेश के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल माना जा रहा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि बीमा पॉलिसीधारकों के साथ पारदर्शिता और निष्पक्षता बरतना कंपनियों की कानूनी जिम्मेदारी है। आने वाले समय में ऐसे फैसले बीमा दावों में भरोसा बढ़ाने और उपभोक्ताओं को न्याय दिलाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।

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