"1975 की इमरजेंसी के 50 साल: मैंने जो देखा, वही लिख रहा हूं – वरिष्ठ अधिवक्ता राजकुमार जैन"

Opinion

"इतिहास को भूलना एक और गलती को आमंत्रण देना है।"
आज जब देश 25 जून 1975 की पचासवीं बरसी मना रहा है, यह जरूरी हो जाता है कि उस दौर की असलियत उन लोगों के अनुभवों से सुनी जाए जिन्होंने आपातकाल को अपनी आंखों से देखा, महसूस किया और उसके प्रभावों को भुगता — न कि उन पीढ़ियों से जो केवल इतिहास की किताबों या राजनीतिक नारों से इमरजेंसी को जानती हैं।

मैं राजकुमार जैन, उस समय 27 वर्ष का एक युवा अधिवक्ता था, जो एक छोटे से कस्बे में वकालत कर रहा था और राजनीतिक रूप से कांग्रेस विचारधारा से जुड़ा था। आज, उस दौर की सच्चाई साझा करना मेरा दायित्व है।


आपातकाल की पृष्ठभूमि: न्यायपालिका बनाम सत्ताधारी

1975 में समाजवादी नेता राजनारायण जी ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ एक चुनाव याचिका दायर की थी। उन्होंने आरोप लगाए कि इंदिरा जी ने अपने चुनाव में सरकारी संसाधनों और अधिकारियों का दुरुपयोग किया। यह याचिका इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा की अदालत में सुनी गई और दो आधारों पर इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित किया गया:

  1. पुलिस द्वारा चुनावी मंच निर्माण व बेरिकेटिंग करना,

  2. उनके निजी सचिव यशपाल कपूर द्वारा इस्तीफे की स्वीकृति से पहले प्रचार में भाग लेना।

इन तकनीकी कारणों को आधार बनाकर जब न्यायालय ने निर्णय सुनाया, तो सत्ता में हड़कंप मच गया। उसी रात सत्ता ने संविधान के साथ सबसे बड़ा खिलवाड़ किया — आपातकाल लागू कर दिया गया।


आपातकाल: एक निर्णय, जो लोकतंत्र पर ताला बन गया

25 जून 1975 की रात, भारत की लोकतांत्रिक नींव हिल गई। आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत हजारों विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया। जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडिस जैसे प्रमुख नेता रातोंरात कैद कर लिए गए। R.S.S., जनसंघ, जमात-ए-इस्लामी, समाजवादी दल, सब पर पाबंदी लगा दी गई।

बड़े-बड़े मीडिया संस्थानों की आवाज दबा दी गई। न्यायपालिका, विशेषकर सुप्रीम कोर्ट, सत्ता के सामने नतमस्तक हो गई। एक याचिका की सुनवाई के दौरान जब वकील ने पूछा कि "क्या सरकार किसी को बिना कारण गोली मार सकती है?", तब के मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रचूड़ ने कहा, "हां, सरकार को ऐसा अधिकार है।"

यह न्यायपालिका नहीं, बल्कि सत्ता की छाया में खड़ी "अधीनपालिका" थी।


सच्चाई के दो पहलू: व्यवस्था बनी या डर बैठ गया?

सच यह है कि इमरजेंसी के दौरान कुछ प्रशासनिक सुधार जरूर दिखे — ट्रेन समय पर चलने लगीं, सरकारी दफ्तरों में जवाबदेही बढ़ी, वृक्षारोपण और परिवार नियोजन के कार्यक्रम तेजी से चले। संजय गांधी ने पर्दा प्रथा हटाने, शहरी आवास योजना और जनसंख्या नियंत्रण जैसे अभियान शुरू किए।

लेकिन इस व्यवस्था के पीछे छिपा था जनता का मौन भय। कोई सार्वजनिक विरोध नहीं कर सका। मध्यप्रदेश में सिर्फ भोपाल में आरएसएस के बनवारीलाल सक्सेना और 17 वर्षीय शिवराज सिंह चौहान जैसे कुछ गिने-चुने युवाओं ने मोर्चा लिया।

अधिकतर नेता भूमिगत हो गए और प्रतिरोध को "गुप्त संग्राम" बताया गया।


राजनीतिक विरोध के अजीब मेल

1977 में चुनाव के समय इंदिरा जी ने स्वयं ही इमरजेंसी समाप्त की।
जनता ने उन्हें हरा दिया। पर विरोधी खेमे ने ऐसा राजनीतिक गठबंधन रचा, जिसे सिद्धांतविहीन सत्ता गठबंधन कहा जा सकता है — आरएसएस और जमात-ए-इस्लामी, जो वैचारिक शत्रु थे, सत्ता पाने के लिए साथ आ गए।

मुरारजी देसाई जैसे गांधीवादी नेता प्रधानमंत्री बने, जिन्होंने रॉ (RAW) जैसी राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी को नुकसान पहुंचाया। उन्होंने पाकिस्तान को भारतीय जासूसों की सूची सौंप दी, जिसके कारण सैकड़ों देशभक्त मार दिए गए।


क्या इमरजेंसी जनता को याद आ गई?

जब यह गठबंधन टूट गया, देश में फिर अव्यवस्था फैली। जनता को इमरजेंसी के अनुशासन की याद आने लगी। परिणामस्वरूप, 1980 में इंदिरा गांधी को प्रचंड बहुमत मिला। यह निर्णय क्या दर्शाता है?

  • कि जनता ने इमरजेंसी को स्वीकार किया?

  • या फिर विकल्पहीनता को?

यह प्रश्न आज भी गूंज रहा है।


अब जब वर्तमान को देखें...

आज जब भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इमरजेंसी को संविधान हत्या दिवस के रूप में याद कर रहे हैं, तो सवाल उठता है — क्या आज के सत्ताधारी सत्ता का दुरुपयोग नहीं कर रहे?

क्या न्यायपालिका अब सचमुच स्वतंत्र है?
क्या मीडिया निडर है?
क्या विपक्ष आज भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से वंचित नहीं?

यदि इंदिरा गांधी को दोषी ठहराया जाता है, तो वर्तमान शासन को कैसे बरी किया जा सकता है?


व्यक्तिगत अनुभव

मैं उस समय एक छोटा वकील था, लेकिन मेरा जमीर बड़ा था। मैंने कांग्रेस का कार्यकर्ता होने के बावजूद, राजनीतिक बंदियों की कानूनी मदद की, क्योंकि मैं उस वक्त को "राजनीतिक बदले" की जगह, "संवैधानिक समर्पण" के रूप में देख रहा था।


 

इतिहास को राजनीतिक एजेंडा नहीं, बल्कि ईमानदार स्मृति के तौर पर देखा जाना चाहिए।
इमरजेंसी एक त्रासदी थी, लेकिन यह जरूरी नहीं कि हर पीड़ा एकतरफा हो।
आज का भारत जब इमरजेंसी की आलोचना करे, तो वह अपने वर्तमान को भी आइने में जरूर देखे।


लेखक: राजकुमार जैन
वरिष्ठ अधिवक्ता, प्रत्यक्षदर्शी और सामाजिक चिंतक

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