सत्ता के भीतर असंतोष: दर्जा प्राप्त मंत्री ने अनदेखी का आरोप लगाया, बैठकों और बजट को लेकर उठे सवाल

मध्यप्रदेश

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आदिवासी क्षेत्र के विकास को लेकर सरकार पर भेदभाव के आरोप, प्राधिकरण को संसाधन न मिलने से बढ़ी राजनीतिक खींचतान

मध्यप्रदेश की राजनीति में एक बार फिर सत्ता के भीतर असंतोष खुलकर सामने आया है। दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री स्तर के एक वरिष्ठ आदिवासी नेता ने सरकार और प्रशासनिक व्यवस्था पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उनका कहना है कि मंत्री का पद मिलने के बावजूद न तो उन्हें अहम बैठकों में बुलाया जा रहा है और न ही उनके प्राधिकरण को आवश्यक बजट और अधिकार दिए जा रहे हैं। इस बयान के बाद सत्तारूढ़ दल के भीतर आंतरिक खींचतान और असहजता के संकेत मिल रहे हैं।

आरोप लगाने वाले नेता वर्तमान में एक आदिवासी विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष हैं। उन्होंने कहा कि जिले और संभाग स्तर की बैठकों में उन्हें नजरअंदाज किया जाता है, जबकि ऐसे नेता, जो किसी संवैधानिक या संगठनात्मक पद पर नहीं हैं, उन्हें प्रमुखता से बैठाया जाता है और उनकी बातों को प्राथमिकता दी जाती है। उन्होंने इसे न केवल व्यक्तिगत अपमान, बल्कि पूरे आदिवासी समाज की उपेक्षा करार दिया।

नेता का कहना है कि हाल ही में हुई एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक बैठक में उन्हें आमंत्रण तक नहीं मिला। इससे पहले जब वे एक बैठक में शामिल हुए भी थे, तो वहां उन्हें अपेक्षित सम्मान नहीं दिया गया। उन्होंने आरोप लगाया कि परंपरा और प्रोटोकॉल के बावजूद उन्हें पीछे की पंक्तियों में बैठाया गया, जबकि अन्य नेताओं को अधिकारियों के ठीक बगल में स्थान मिला।

इस नाराजगी के केंद्र में आदिवासी विकास प्राधिकरण का बजट भी है। मंत्री का आरोप है कि उनके प्राधिकरण से जुड़े प्रस्ताव लंबे समय से लंबित हैं और वित्तीय संसाधन नहीं दिए जा रहे, जबकि कुछ अन्य नेताओं से जुड़े प्रस्तावों को तेजी से मंजूरी मिल जाती है। उनका कहना है कि बिना बजट और अधिकार के प्राधिकरण केवल नाम मात्र का रह गया है, जिससे जमीनी स्तर पर आदिवासी समाज को कोई ठोस लाभ नहीं मिल पा रहा।

उन्होंने आदिवासी इलाकों में विकास परियोजनाओं के नाम पर जमीन अधिग्रहण का मुद्दा भी उठाया। आरोप है कि ऊर्जा और अन्य परियोजनाओं के लिए उन जमीनों को चुना जा रहा है, जहां वर्षों से आदिवासी परिवार खेती और निवास करते आ रहे हैं। मंत्री ने सवाल उठाया कि क्या विकास के लिए केवल आदिवासियों की जमीन ही उपलब्ध है, या फिर अन्य विकल्पों पर विचार क्यों नहीं किया जा रहा।

लोकसभा और विधानसभा चुनावों का जिक्र करते हुए उन्होंने दावा किया कि चुनावी जीत में आदिवासी मतदाताओं की निर्णायक भूमिका रही है, लेकिन इसके बावजूद उन्हें और उनके समाज को राजनीतिक स्तर पर उचित सम्मान नहीं मिल रहा। उन्होंने यह भी कहा कि टिकट वितरण और चुनावी रणनीति में की गई गलतियों का खामियाजा पार्टी को उठाना पड़ा, लेकिन इसकी जिम्मेदारी अब उन पर डाली जा रही है।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह बयान केवल व्यक्तिगत नाराजगी नहीं, बल्कि पार्टी के भीतर गहराते असंतोष का संकेत है। आदिवासी क्षेत्रों में सरकार की पकड़ और विश्वास बनाए रखने के लिए इस तरह के मुद्दों का समाधान जरूरी माना जा रहा है। फिलहाल, यह देखना अहम होगा कि सरकार और संगठन इस असंतोष को कैसे संभालते हैं और क्या आदिवासी विकास से जुड़े संस्थानों को वास्तविक अधिकार और संसाधन मिल पाते हैं या नहीं।

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