"30 जून 2004: जब हरसूद जलमग्न हुआ, पर यादों से अमिट हो गया"

Opinion

आज फिर 30 जून है...
वही दिन, वही तारीख, जब ठीक 21 साल पहले, 30 जून 2004 को हमने अपने दिल के सबसे करीब बसे शहर हरसूद (M.P) को माँ नर्मदा की उफनती लहरों के हवाले कर दिया था। पर एक सच यह भी है कि हरसूद की इमारतें डूबी होंगी, लेकिन हरसूद का एहसास आज भी जिंदा है – हमारी सांसों में, हमारी स्मृतियों में, और हमारी आत्मा में।

हरसूद सिर्फ एक शहर नहीं था, वह हमारी पहचान था, शब्दों के पहले उच्चारण से लेकर विदाई की आखिरी विदा तक का वह मंच था, जिस पर हमने जीवन के तमाम दृश्य निभाए


हर गली, हर मोड़ – जड़ें अब भी गीली हैं...

आज जब किसी से यह पूछा जाए कि "आप कहां से हैं?" तो जवाब आज भी वही आता है – "हरसूद से!"
भले ही नक्शों से हरसूद मिट चुका है, लेकिन हमारे नक्शे-ए-दिल पर वह आज भी अपनी पूरी गरिमा और गरज के साथ अंकित है।

  • मेन रोड से लेकर स्टेशन तक की वो दौड़ती साँझें...

  • टेकरा मोहल्ला, किशनपुरा, घोसी मोहल्ला, गड़ी, जीन मोहल्ला, गांधी चौक...

  • काशिव डॉक्टर की गली हो या सिविल लाइन की ठंडी हवा...

हरसूद के ये हिस्से केवल भूगोल नहीं, ये हमारे वजूद का हिस्सा हैं। इन गलियों से उठती वो सौंधी मिट्टी की खुशबू आज भी हमारे भीतर कहीं गूंज रही है।


हरसूद की आत्मा अमर है...

21 साल का वक्त बीत गया, लेकिन हरसूद न उजड़ा है, न डूबा है, न बिसराया गया है।
हरसूद तो आज भी जीवंत है – हर उस व्यक्ति में, जिसने वहाँ साँस ली, वहाँ रिश्ते बनाए, वहाँ सपने बोए और वहाँ यादें सहेजीं।

बावड़ी की घिरनियों की गड़गड़ाहट,
शिवालयों में गूंजती आरती की स्वर लहरियाँ,
तांगे की टक-टक, डोल ग्यारस की उमंग,
कमल टॉकीज की टिकट की कतार,
बेसिक स्कूल, हाईस्कूल की वह सुबह...
हर पल, हर क्षण आज भी मानस की वीथियों में जीवंत है।


हरसूद केवल एक भूगोल नहीं था – वह हमारी आत्मा का स्थायी निवास है।

जैसे माँ नर्मदा के आंचल में समाया हरसूद, हमारे हृदय की नदी में अब भी उसी शान से बह रहा है। उसकी संस्कृति, उसका सौहार्द, उसका अपनापन – आज भी नई पीढ़ियों के रक्त में प्रवाहित हो रहा है।

हरसूद एक स्मृति नहीं, एक संस्कार है।
हरसूद एक जगह नहीं, एक जीवनशैली है।
हरसूद एक कस्बा नहीं, एक कविता है – जो कभी खत्म नहीं होती।


आज भी जब कोई ‘दाना बाबा की जय’ कहता है, मन फिर से हरसूद में लौट जाता है।

यह 21 वर्ष केवल एक कालखंड नहीं, एक अध्याय है – हमारी आत्मकथा का।
हरसूद भले ही पुनर्नवा न हो सका, लेकिन उसकी जड़ें – हमारी आत्मा में, हमारी भाषा में, हमारी संवेदना में आज भी हरी-भरी हैं।
और माँ नर्मदा... वह आज भी उन जड़ों को सींच रही है।


"हरसूद कभी खत्म नहीं होगा, क्योंकि वह मिट्टी में नहीं,
हमारे मन और यादों में बसा है – हमेशा के लिए।"

🖊️ — अरविंद शर्मा
(हरसूद का बेटा... जो आज भी वहाँ साँस लेता है)

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