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MP : "कलारी के बाहर नशे का मेला, "सड़कें बनीं शराबखाना, सत्ता बनी तमाशबीन"
Opinion By Devendra Patel

कभी मध्य प्रदेश की सत्ता में रहते हुए पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कई जिलों में बार बंद करवाए, सार्वजनिक अभियान चलाए, नशामुक्ति की शपथ दिलवाई। लोगों को लगा, शायद अब वो समय आएगा जब हमारे गांव-शहरों की गलियों में शराब की दुर्गंध नहीं, संस्कारों की सुगंध बहेगी। लेकिन हकीकत इससे उलट है।
आज प्रदेश की सड़कों पर जो हो रहा है, वह सिर्फ कानून का उल्लंघन नहीं, समाज की आत्मा पर हमला है। शराब अब दुकान के अंदर नहीं, सड़क पर बिक रही है। बोतलें ठेके पर नहीं, ठेके के बाहर फुटपाथ पर खुल रही हैं।
खुली आँखों से देखा जा रहा अराजकता का नंगा नाच
भोपाल जैसे बड़े शहर से लेकर कस्बों और गांवों तक एक जैसा नज़ारा है —
हर शराब दुकान के बाहर दर्जनों लोग बोतलें और प्लास्टिक गिलास लिए बैठे होते हैं, सड़क पर जाम छलकाते हैं, गालियों की गूंज होती है, और कई बार महिलाओं या राहगीरों से अभद्रता तक। पुलिस की गाड़ी वहां से गुजरती है, पर उसकी गति कम नहीं होती। मानो यह सब अब सामान्य हो चुका हो।
यह कौन सी सार्वजनिक व्यवस्था है जिसमें शराब पीना तो माफ़ है, लेकिन टोकना जुर्म जैसा लगता है?
उमा भारती की चेतावनी अब हकीकत बन चुकी है
जब भाजपा की वरिष्ठ नेता उमा भारती ने शराबबंदी की मांग करते हुए यह कहा था कि "शराब की दुकानों के आसपास छेड़छाड़ बढ़ी है, महिलाएं असुरक्षित हैं," तो उस समय इसे 'राजनीतिक बयान' कहकर अनदेखा कर दिया गया था। लेकिन अब, नज़ारा खुद बोल रहा है।
स्थिति अब ‘छेड़छाड़’ से आगे बढ़कर सामाजिक हिंसा और अराजकता की ओर बढ़ चुकी है।
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शराब की दुकानों के बाहर खुला पीना
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झगड़े, गाली-गलौज और कभी-कभी जानलेवा मारपीट
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मोहल्लों में महिलाओं का शाम को निकलना मुश्किल
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छोटे बच्चों के सामने शराबखोरी की दृश्यता — मानसिक विकृति को जन्म देती है
‘शराब’ अब सिर्फ राजस्व नहीं, सामाजिक पतन का कारण है
हर बार यह तर्क दिया जाता है कि शराब से मिलने वाला राजस्व राज्य के विकास में लगता है। लेकिन यह कैसा विकास है, जिसमें परिवार टूटते हैं, और संस्कार मरते हैं?
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अगर एक ओर शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए सरकार बजट बनाती है,
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और दूसरी ओर उसी सरकार की नीतियों से नशा, असुरक्षा और हिंसा बढ़ रही है,
तो यह कैसी दोहरी नीति है?
क्या सिर्फ़ पैसा कमाना ही नीति का लक्ष्य है, भले ही वो समाज का नैतिक दिवालियापन करके क्यों न मिले?
प्रशासन की चुप्पी या मौन स्वीकृति?
आज सबसे बड़ा सवाल है —
क्या प्रशासन अंधा हो चुका है? या उसने देखना ही छोड़ दिया है?
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सार्वजनिक स्थल पर शराब पीना कानूनन अपराध है।
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लेकिन हर गली-मोहल्ले में यह अपराध सामान्य जीवनशैली बन चुका है।
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कभी कोई चालान नहीं, न कोई गिरफ्तारी। बस ‘देखकर भी अनदेखा’ करने की आदत।
क्या यह निकम्मापन है या मौन समर्थन?
सामाजिक तानेबाने की टूटन: भविष्य की पीढ़ी पर असर
जब एक बच्चा अपने मोहल्ले में रोज़ नशे में धुत्त लोगों को लड़ते-झगड़ते देखता है,
जब वह स्कूल से लौटते समय शराबियों की अश्लील भाषा सुनता है,
तो उसके मन में किस तरह की संस्कारशीलता विकसित होगी?
क्या हम ऐसे नागरिक गढ़ रहे हैं जो संविधान से नहीं, शराब की बोतल से सोचते हैं?
समाधान क्या हो? कुछ ईमानदार, कुछ साहसी कदम जरूरी हैं:
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सार्वजनिक स्थान पर शराब पीने पर सख्त दंड — चालान, गिरफ्तारियां और ज़ीरो टॉलरेंस नीति लागू हो।
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ठेकों की व्यवस्था में बदलाव — हर दुकान के बाहर CCTV, निगरानी दल और ‘नो-कंजम्प्शन ज़ोन’ बनाया जाए।
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नशामुक्ति शिक्षा — स्कूलों, पंचायतों और मीडिया में अभियान चलाकर जन-जागरूकता बढ़ाई जाए।
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नागरिक भागीदारी — हर मोहल्ले में नागरिक समितियाँ बनें जो ऐसी घटनाओं पर शिकायत कर सकें और सामाजिक दबाव बना सकें।
मध्य प्रदेश को नशामुक्त नहीं, ‘नशा-नैतिकता संतुलित’ राज्य बनाना होगा
यह समय सिर्फ आलोचना का नहीं, जवाबदेही और निर्णय का है।
सरकार को यह तय करना होगा कि वह शराब के ज़रिए पैसा कमाना चाहती है, या लोगों का विश्वास।
और आम नागरिकों को भी यह तय करना होगा कि वह मूकदर्शक बने रहेंगे, या आवाज़ उठाएंगे।
क्योंकि यह सिर्फ शराब का मुद्दा नहीं है,
यह समाज की संस्कृति, महिलाओं की सुरक्षा और नई पीढ़ी के चरित्र का प्रश्न है।
अब भी समय है—समझ जाएं, नहीं तो एक पीढ़ी बीतने में देर नहीं लगेगी।
✍️ देवेंद्र पटेल
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