"फिल्मिस्तान" अब बस एक याद: 85 साल की विरासत का अंत, महेश भट्ट हुए भावुक

Bollywod

भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग का गवाह रहा फिल्मिस्तान स्टूडियो अब इतिहास बन चुका है। 85 साल पुरानी इस विरासत को अब तोड़कर वहां एक रेजिडेंशियल टॉवर बनाया जाएगा।

यह वही स्टूडियो है जहां रानी मुखर्जी और काजोल के दादा शशधर मुखर्जी और अभिनेता अशोक कुमार ने सपनों की दुनिया की नींव रखी थी।

शुरुआत जो एक सपना थी

1940 में बॉम्बे टॉकीज से अलग होकर शशधर मुखर्जी और अशोक कुमार ने फिल्मिस्तान स्टूडियो की स्थापना की थी। यह केवल एक स्टूडियो नहीं, बल्कि एक सजीव दस्तावेज़ था, जिसने 'अनारकली', 'नागिन', 'तुमसा नहीं देखा', 'पेइंग गेस्ट' जैसी फिल्मों को आकार दिया।

हैदराबाद के निज़ाम का सहयोग

इस स्टूडियो की नींव रखने में हैदराबाद के निज़ाम मीर ओस्मान अली खान की आर्थिक मदद भी शामिल थी। उस समय भारतीय सिनेमा अपने पैर पसार रहा था, और फिल्मिस्तान उस विस्तार की धुरी बना।


कभी कहानियों की धड़कन, अब बस ईंट-पत्थर

183 करोड़ में यह स्टूडियो अब Arcade Developers को बेचा जा चुका है और यहां 3000 करोड़ रुपये का रेजिडेंशियल प्रोजेक्ट बनेगा। पहले राज कपूर का आरके स्टूडियो और फिर कमालिस्तान स्टूडियो की बिक्री के बाद फिल्मिस्तान का बिकना, मानो हिंदी सिनेमा की आत्मा का एक-एक हिस्सा खो जाना है।

महेश भट्ट की भावुक विदाई

फिल्म निर्देशक महेश भट्ट ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा –

"फिल्मिस्तान सिर्फ एक स्टूडियो नहीं, मेरी आत्मा का टुकड़ा था। मैंने वहीं खुद को बिखरा पाया, और वहीं से फिर खुद को समेटा भी। ‘डैडी’, ‘अर्थ’, ‘सड़क’, ‘जनम’ जैसी कहानियां वहीं गूंजी थीं। अब वह जगह बस मलबा बन जाएगी।"

उन्होंने यह भी कहा कि कहानी कहने की शैली बदल गई है – अब युवा फोन पर एक मिनट की फिल्में बनाते हैं, लेकिन भावना आज भी वैसी ही है।

"फिल्मिस्तान चला गया... लेकिन कहानी अब भी चल रही है। फ्रेम बदल गया है, पर आत्मा वही है।"


बदलता सिनेमा, बदलते माध्यम

आज के दौर में डिजिटल माध्यमों ने स्टूडियो की सीमाओं को तोड़ दिया है। OTT प्लेटफॉर्म्स, मोबाइल फिल्ममेकिंग और सोशल मीडिया के माध्यम से कहानियां अब किसी सेट या लोकेशन की मोहताज नहीं रहीं। पर सवाल यह है कि क्या विरासत को यूं मिटा देना उचित है?


कामगारों की आजीविका पर संकट

ऑल इंडिया सिने वर्कर्स एसोसिएशन ने महाराष्ट्र सरकार से अपील की है कि इस ऐतिहासिक स्टूडियो को बचाया जाए, क्योंकि इससे हजारों परिवारों की रोज़ी-रोटी जुड़ी हुई है। उनका कहना है कि यह स्टूडियो न केवल इतिहास है, बल्कि हजारों तकनीशियनों, सेट डिजाइनरों, लाइटमैन और मजदूरों की पहचान भी है।


एक स्मारक क्यों नहीं बना दिया गया फिल्मिस्तान को?

क्या ये संभव नहीं था कि फिल्मिस्तान को एक फिल्म म्यूजियम या राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया जाता? जहां सिनेमा प्रेमी आकर उसकी दीवारों पर उकेरी गई कहानियों को महसूस कर सकते?


 

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