क्रिप्टो बनाम SDR: क्या डिजिटल परिसंपत्तियां बनेंगी भविष्य की वैश्विक आरक्षित मुद्रा?

Business

तेजी से बदलते वैश्विक वित्तीय परिदृश्य में एक नई बहस छिड़ी है—क्या क्रिप्टो परिसंपत्तियां (Digital Assets) भविष्य में पारंपरिक अंतरराष्ट्रीय आरक्षित साधनों, विशेषकर स्पेशल ड्रॉइंग राइट्स (SDR), का स्थान ले सकती हैं?

हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) द्वारा क्रिप्टो को अपने बैलेंस ऑफ पेमेंट्स मैनुअल में शामिल करने के बाद यह चर्चा और तेज हो गई है।

SDR: एक पारंपरिक लेकिन सीमित साधन

IMF ने 1969 में SDR की शुरुआत अंतरराष्ट्रीय भंडार को बढ़ाने के लिए की थी, ताकि सोना और अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता कम हो। इसका मूल्य पांच प्रमुख मुद्राओं—अमेरिकी डॉलर, यूरो, चीनी युआन, जापानी येन और ब्रिटिश पाउंड—के मिश्रण पर आधारित होता है। सदस्य देश SDR का उपयोग मुद्रा स्थिर रखने, आयात के वित्तपोषण और आर्थिक संकट से निपटने में करते हैं।
हालांकि, SDR का उपयोग केवल IMF सदस्य देशों और चुनिंदा संस्थानों तक सीमित है, जिससे इसकी पहुंच और प्रभाव सीमित रहता है।

क्रिप्टो: वैश्विक वित्त का नया चेहरा

इसके उलट, क्रिप्टो परिसंपत्तियां विकेंद्रीकरण, पारदर्शिता और त्वरित लेनदेन जैसे गुणों के कारण वैश्विक वित्तीय तंत्र में क्रांति ला रही हैं। ब्लॉकचेन तकनीक आधारित यह परिसंपत्तियां किसी एक देश की मौद्रिक नीति से बंधी नहीं होतीं, जिससे ये अधिक राजनीतिक रूप से तटस्थ विकल्प प्रदान करती हैं।
स्मार्ट कॉन्ट्रैक्ट जैसे फीचर्स इन्हें सीमा-पार लेनदेन, वित्तीय समावेशन और लागत में कमी के लिए उपयुक्त बनाते हैं—जो SDR में संभव नहीं।

फायदे और चुनौतियां

क्रिप्टो की सबसे बड़ी ताकत है इसकी सार्वभौमिक पहुंच—इसे सरकारों के साथ-साथ आम नागरिक और व्यवसाय भी इस्तेमाल कर सकते हैं। वहीं, SDR अपेक्षाकृत स्थिर हैं और कई मुद्राओं के आधार पर जोखिम कम रखते हैं।
क्रिप्टो के सामने नियामकीय अनिश्चितता, कीमतों में अस्थिरता और संस्थागत स्वीकृति की कमी जैसी चुनौतियां मौजूद हैं, लेकिन स्टेबलकॉइन जैसी तकनीक इस अस्थिरता को कम कर रही है।

भारत की स्थिति और अवसर

अमेरिका, जापान और यूरोपीय संघ के कई देश डिजिटल मुद्राओं को अपनाने के लिए स्पष्ट नियम बना रहे हैं, जबकि भारत की नीतियां अभी सतर्क और बिखरी हुई हैं। भारत के पास वेब3 और डिजिटल अर्थव्यवस्था में नेतृत्व की क्षमता है, लेकिन नियामकीय देरी उसकी वैश्विक प्रतिस्पर्धा को कमजोर कर सकती है।
अगर भारत समय पर प्रगतिशील नीतियां नहीं लाता, तो वह इस वित्तीय बदलाव की दौड़ में पीछे रह सकता है।

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