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भारत विभाजन की विभीषिका
ओपीनियन - धमेन्द्र सिंह लोधी, राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार), मध्यप्रदेश शासन

अनेक वर्षों की पराधीनता और विदेशी शक्तियों को परास्त कर 15 अगस्त 1947 को भारत में स्वतंत्रता का सूर्य उदित हुआ। इस उदय ने सदियों की गुलामी का अंधकार मिटाकर स्वराज के पुष्प को पल्लवित किया। लेकिन इसकी तपिश ने एक भयावह विभीषिका को भी जन्म दिया—मातृभूमि के विभाजन की विभीषिका।
भारत का विभाजन केवल एक राजनीतिक घटना नहीं, बल्कि एक ऐसी त्रासदी थी जिसने न केवल अखंड भारत की एकता को खंडित किया, बल्कि हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक और मानवीय ताने-बाने को भीतर तक घायल कर दिया।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब ब्रिटिश हुकूमत के लिए भारत पर सत्ता बनाए रखना असंभव लगने लगा, तब उन्होंने पुनः ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई। इस षड्यंत्र में मुस्लिम लीग और मोहम्मद अली जिन्ना की संकीर्ण, कट्टर मानसिकता, अलगाववादी राजनीति और सत्ता की लालसा ने आग में घी का काम किया।
जिन्ना ने धर्म के आधार पर एक अलग "मुस्लिम राष्ट्र" की अवधारणा को हथियार बनाकर देश की हवाओं में साम्प्रदायिकता का जहर घोला। स्वतंत्रता से ठीक पहले, 16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग ने "प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस" का आह्वान किया, जिसके परिणामस्वरूप बंगाल, बिहार सहित पूरे देश में भीषण साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे।
इन दंगों में हजारों लोग मारे गए, लाखों बेघर हुए, अनगिनत महिलाओं के साथ दुराचार हुआ। हिंसा का सबसे बड़ा शिकार हिन्दू बने—हजारों निर्दोष हिन्दुओं की हत्या हुई, महिलाओं के साथ बलात्कार और जबरन धर्म परिवर्तन कराए गए।
विभाजन रोकने की तमाम कोशिशों के बावजूद अंततः 14 अगस्त 1947 को भारत का विभाजन हो ही गया। यह विभाजन एक ऐसी मानव त्रासदी के रूप में सामने आया जिसकी पीड़ा पीढ़ियों तक महसूस की गई और आज भी महसूस की जा रही है।
रातों-रात भारत की सांस्कृतिक धारा को कृत्रिम भू-भागों में बांट दिया गया। करोड़ों लोग अपना घर-आंगन, खेत-खलिहान छोड़कर अनजाने रास्तों पर निकल पड़े। लगभग एक करोड़ हिन्दू और सिख पाकिस्तान से भारत आए, वहीं लगभग 70 लाख मुसलमान भारत से पाकिस्तान गए।
विभाजन का सबसे भयावह पहलू था—मानवता का पतन। क्रूरतापूर्ण कत्लेआम, बलात्कार, आगजनी, लूटपाट और व्यापक धर्मांतरण जैसी घटनाएं हुईं। पाकिस्तान से आने वाली ट्रेनों में लाशों का अंबार होता था। मासूम बच्चों की चीखें, माताओं का विलाप और बेसहारा चेहरों की भीड़—ये सब विभाजन की स्थायी प्रतीक बन गए।
वास्तव में भारत का विभाजन तत्कालीन मुस्लिम नेताओं की धार्मिक कट्टरता और सत्ता की लालसा का परिणाम था। जिन्ना ने ‘वजीर-ए-आज़म’ बनने की ख्वाहिश में मुसलमानों को भड़काया और यहां तक कहा—“मुसलमानों के लिए अलग देश बनाना अल्लाह का फरमान है और इसके लिए जो हिन्दुओं का कत्ल करेगा, उसे जन्नत नसीब होगी।”
जिन्ना की तरह मोहम्मद इकबाल जैसे लोगों ने भी इस विभाजनकारी सोच को हवा दी। वही इकबाल, जिन्होंने एक समय लिखा था—
“मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दुस्तां हमारा”
बाद में यह लिखने लगे—
“चीन-ओ-अरब हमारा, हिन्दुस्तां हमारा,
मुस्लिम हैं हम, वतन है सारा जहां हमारा”
कुल मिलाकर, विभाजन कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, बल्कि इस्लामी कट्टरवाद की एक सुनियोजित त्रासदी थी, जिसका खामियाजा भारत आज भी भुगत रहा है। पाकिस्तान प्रायोजित इस्लामी आतंकवाद वास्तव में भारत विभाजन का ही परिणाम है।
विभाजन की पीड़ा आज भी करोड़ों भारतीयों के हृदय में विद्यमान है। इसे स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की पंक्तियों में सहजता से महसूस किया जा सकता है—
“पन्द्रह अगस्त का दिन कहता—आजादी अभी अधूरी है,
सपने सच होने बाकी हैं, रावी की शपथ न पूरी है।
दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएंगे,
गिलगित से गरज पर्वत तक आज़ादी पूर्ण मनाएंगे।”
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने धारा 370 समाप्त करके और कश्मीर से आतंकवाद का सफाया करके इस पीड़ा को काफी हद तक कम किया है। लेकिन यह पुकार तब पूरी होगी जब पीओके पर भारत का पूर्ण अधिकार होगा।
आज, विभाजन की विभीषिका को याद करते हुए यह समझना आवश्यक है कि यह केवल इतिहास का पुनरावलोकन नहीं, बल्कि एक चेतावनी है—जब धार्मिक कट्टरता और सत्ता की लालसा मिल जाती है, तो राष्ट्र की सीमाओं में दरार पड़ जाती है।
महाभारत के युद्ध के बाद भीष्म पितामह ने युवधिर से कहा था—
“मैंने हस्तिनापुर का विभाजन करके अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की थी। यदि कभी तुम्हारे समक्ष राष्ट्र के विभाजन का प्रसंग आए, तो कुरुक्षेत्र में आ जाना, लेकिन राष्ट्र का विभाजन मत होने देना।”
भारत विभाजन का यह दिन हमें याद दिलाता है कि राष्ट्र की एकता और सांस्कृतिक अखंडता हमारी सबसे बड़ी शक्ति है। विभाजन के घाव चाहे जितने गहरे हों, वे ‘भारत की आत्मा’ को खोखला नहीं कर सकते। हमारी गौरवशाली संस्कृति, महान सभ्यता और समृद्ध इतिहास की धारा युगों-युगों से अविरल बहती रही है और बहती रहेगी।
इस विभीषिका से हमें यह भी सबक लेना है कि कभी भी किसी जिन्ना, किसी इकबाल या किसी भी विभाजनकारी विचार को अपने बीच पनपने नहीं देना है।
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