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हरसूद: विकास के उजाले में डूबा एक पूरा जीवन.... 21 साल बाद भी हमारे अंधेरे खत्म क्यों नहीं हुए?
Opinion - चंद्र कुमार सांड, विस्थापित - हरसूद

30 जून 2004 — यह सिर्फ एक तारीख नहीं, बल्कि एक जिंदा शहर की आखिरी सांस थी। इस दिन हरसूद और उसके साथ 250 गांव धीरे-धीरे पानी में समा गए। और उस दिन से अब तक, हर साल 30 जून हमारे लिए मातम का दिन बन गया है।
हरसूद कोई साधारण कस्बा नहीं था। यह एक 700 साल पुरानी बसाहट थी, जहाँ हमारे पूर्वजों की मिट्टी, यादें, संस्कृति और पहचान बसी हुई थी। लेकिन विकास के नाम पर हमें उजाड़ दिया गया। हमें हमारे अपने ही घर से बेघर कर दिया गया।
आज 21 साल हो गए हैं। लेकिन सवाल वही हैं —
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क्या हम सिर्फ आंकड़ों में गिने जाने के लिए जिंदा हैं?
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क्या विकास का मतलब हमारी जड़ों को उखाड़ देना है?
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क्या सरकार ने वाकई हमें वो सब कुछ दिया, जो उसने वादा किया था?
हमसे कहा गया था कि हमें पुनर्वास मिलेगा। मकान, ज़मीन, सुविधा — सब कुछ मिलेगा। पर सच यह है कि आज भी कई विस्थापित बुनियादी जरूरतों से जूझ रहे हैं।
नए मकान मिले, लेकिन उसमें "घर" जैसा कुछ नहीं है।
दरवाज़े हैं, पर जान-पहचान नहीं। गलियाँ हैं, पर पड़ोसी नहीं। दीवारें हैं, पर यादें नहीं।
हम कोई एहसान नहीं मांग रहे — हम अपने अधिकार की बात कर रहे हैं।
सरदार सरोवर और ओंकारेश्वर परियोजना के विस्थापितों को जैसा विशेष पैकेज दिया गया, वैसा ही पैकेज इंदिरा सागर परियोजना के विस्थापितों को भी दिया जाए।
पुनर्वास नीति के हर वादे को जमीन पर लागू किया जाए — बिना टाल-मटोल, बिना भेदभाव।
हम विकास के दुश्मन नहीं हैं, लेकिन अगर उस विकास में इंसान की पहचान मिटा दी जाए — तो फिर वो कैसा विकास?
हरसूद आज भी हमारे दिलों में जिंदा है।
हमारी कहानियों में, हमारे बच्चों के सवालों में, हमारी आँखों के खालीपन में।
हर 30 जून को जब हम मोमबत्तियाँ जलाते हैं, तो वो सिर्फ एक शहर के लिए नहीं, हमारी मिट्टी, संस्कृति और आत्मा के लिए होता है।
सरकार से यही अपील है —
हरसूद को भूलिए मत।
बलिदान को केवल भाषणों में मत समेटिए।
हमें सिर्फ याद नहीं, न्याय चाहिए।