आपातकाल के 50 साल: जब लोकतंत्र जंजीरों में जकड़ा गया

Opinion कैलाश सोनी, पूर्व राज्यसभा सांसद एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष, लोकतंत्र सेनानी संघ

25 जून 1975… वह काला दिन जब लोकतंत्र का गला घोंट दिया गया।

तत्कालीन प्रधानमंत्री  इंदिरा गांधी ने सत्ता के लोभ में संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों को रौंदते हुए आपातकाल लागू किया और देश को तानाशाही की जकड़ में ले लिया। यह दिन उन सभी के लिए एक गंभीर सबक है जो लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं। आज, जब आपातकाल के 50 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं, यह जरूरी है कि नई पीढ़ी उस काले अध्याय से सीखे, ताकि भविष्य में कभी लोकतंत्र को जंजीरों में जकड़ा न जाए।

12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया था। उस वक्त कांग्रेस में यह सोच बनी कि चुने हुए प्रतिनिधि बैठकर नया नेता चुने। मगर 25 जून की रात आपातकाल का फरमान जारी कर दिया गया — बिना संविधान में निर्धारित प्रक्रियाओं का पालन किए। अगर उस वक्त राष्ट्रपति ने संविधान और लोकतंत्र के पक्ष में खड़े होकर हस्ताक्षर न किए होते, तो यह काला अध्याय कभी लिखा ही न जाता!

लेकिन यह लोकतंत्र का सबसे बड़ा विश्वासघात था कि न्यायपालिका का सहारा लेकर सत्ता अपनी सत्ता बचाने में सफल रही। तब तीन-तीन सुप्रीम कोर्ट जजों को सुपरसीड किया गया और उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने 4-1 के बहुमत से आपातकाल को ‘वैध’ करार दे दिया! यह अदालतों और न्यायपालिका दोनों के लिए शर्मनाक क्षण था — एक ऐसा क्षण, जिसको लोकतंत्र कभी नहीं भुला सकेगा।

आपातकाल में लोकतंत्र की मूल भावना दम तोड़ने लगी थी। पूरे देश को जेलखाने में तब्दील कर दिया गया। जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडीज जैसे महान नेताओं समेत लगभग 1 लाख 8 हजार लोगों को मीसा और डीआईआर जैसे काले कानूनों में सलाखों के पीछे डाला गया। मीडिया का गला घोंट दिया गया। दो सौ से अधिक पत्रकारों और विदेशी संवाददाताओं को प्रतिबंधित किया गया। उस वक्त अगर कोई लोकतंत्र या नागरिक अधिकारों की बात करता तो जेल में डाल दिया जाता, या तो सीधी गोली मारने का आदेश जारी हो जाता!

फिर भी यह देश झुका नहीं। यह लोकतंत्र का संस्कार है कि तमाम जुल्मों और जंजीरों के बावजूद यह लौटकर सीना तानकर खड़ा हुआ। जेल में डाल दिए गए नेताओं और कार्यकर्ताओं ने जान हथेली पर लेकर लोकतंत्र की मशाल जलाई। एक ओर जेल में यातनाएँ दी जा रही थीं तो दूसरी ओर डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी जैसे लोकतंत्र के रक्षक विदेशों में अलख जगा रहे थे। सैकड़ों लोगों ने अपनी जान तक न्यौछावर कर दी, दर्जनों पागल हो गए, मगर लोकतंत्र को जिंदा रखने का जज्बा कभी खत्म नहीं हुआ।

 आपातकाल से सीखा सबक: लोकतंत्र एक जिम्मेदारी है

लोकतंत्र एक व्यवस्था नहीं, बल्कि मूल्यों और आदर्शों का संस्कार है। यह सत्ता के लोभ और व्यक्तिगत तानाशाही के आगे कभी घुटने नहीं टेक सकता। आपातकाल के विरोध में उठे जनांदोलन ने यह सन्देश दिया कि लोकतंत्र तब तक सुरक्षित है जब तक नागरिक सजग और संगठित रहते हैं।

 लोकतंत्र सेनानियों का योगदान अविस्मरणीय है

लोकतंत्र को बचाने का यह संघर्ष अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडीज, जयप्रकाश नारायण जैसे महान नेताओं और लोकतंत्र सेनानियों के जज्बे और बलिदान का फल है। यह वे लोग थे जिन्होंने जेल में रहकर, यातना सहकर और जान तक दांव पर लगाकर यह सुनिश्चित किया कि लोकतंत्र का सूरज कभी अस्त न हो सके।


 मुद्दे और सुझाव:

  • लोकतंत्र सेनानियों का सम्मान: आपातकाल में लोकतंत्र बचाने वालों को राष्ट्रीय स्तर पर नियमित सम्मान और सुविधाएँ दी जाएँ।

  • इतिहास का हिस्सा बनाएँ: आपातकाल और लोकतंत्र संघर्ष को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए ताकि युवा पीढ़ी इससे सीख सके।

  • लोकतंत्र संवाद: नागरिकों और छात्रों के बीच लोकतंत्र और संविधान को लेकर संवाद और बहस आयोजित हों।

  • लोकतंत्र स्मृति स्थल: आपातकाल और लोकतंत्र सेनानियों की स्मृति में राज्यभर में स्मारक या संग्रहालय स्थापित हों।


समय की सीख:

लोकतंत्र तब तक जिंदा है जब तक नागरिक सवाल उठाने का साहस रखते हैं और सत्ता उस सवाल का जवाब देने को बाध्य रहती है। आपातकाल का काला इतिहास हमें यह सन्देश देता है कि हमें अपनी मूल लोकतांत्रिक विरासत और मूल्यों को कभी जंग नहीं लगने देना है!

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