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न्याय के मंदिर से नये न्याय की आस : मदन मोहन गुप्त
Opinion

रीवा में नये जिला न्यायालय भवन के उद्घाटन के अवसर पर यह प्रश्न फिर से प्रासंगिक हो उठा है — क्या आज भी भारत की न्याय प्रणाली वाकई में "भारतीय" है?
रीवा में 96 करोड़ रुपये की लागत से बने नवनिर्मित जिला न्यायालय भवन का उद्घाटन सिर्फ एक इमारत का लोकार्पण नहीं है, यह न्याय के नव मंदिर का प्रवेश द्वार है— एक ऐसी आकांक्षा, जो भारत को उसकी वास्तविक न्यायिक आत्मा से जोड़ने की पुकार बन गई है।
प्राचीन भारत की न्याय अवधारणा: जहां धर्म था न्याय का आधार
भारतीय दर्शन में न्याय केवल कानून नहीं, धर्म था। "अपन्थानं तु गच्छन्तं सोदरोऽपि विमुञ्चति" — जो व्यक्ति धर्म से हटता है, उसका साथ उसका सगा भाई भी छोड़ देता है। यह सनातन मूल्य आज भी हमारे भीतर जीवित है, पर क्या हमारी न्याय प्रणाली इसे पहचानती है?
प्राचीन भारत की न्यायिक परंपराएं मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, नारद स्मृति जैसे शास्त्रों में वर्णित थीं। न्यायसूत्र, न्यायवार्तिक और न्यायभाष्य जैसे ग्रंथ भारतीय मनीषियों ने तब रचे, जब पश्चिमी जगत न्याय का अर्थ भी न जानता था।
अंग्रेजों का न्याय: गुलामों के लिए कानून, राजाओं के लिए छूट
अंग्रेजों ने भारत को सिर्फ राजनीतिक नहीं, वैचारिक गुलामी दी। उन्होंने एक ऐसी न्याय व्यवस्था थोपी जो शोषण को वैधानिकता देती थी और विद्रोह को दंडनीय अपराध।
शहीद भगत सिंह, राजगुरु, बिस्मिल— क्या इनकी फांसी निष्पक्ष न्याय थी? जलियांवाला बाग हत्याकांड के दोषी कर्नल डायर को सम्मानित करना क्या कानून का सम्मान था?
अंग्रेजों ने भारतीय न्याय प्रणाली को Indian Penal Code नामक एक पुस्तक में जकड़ दिया— एक ऐसी किताब जिसे गुलामों को नियंत्रित करने के लिए लिखा गया था, न कि स्वतंत्र नागरिकों को न्याय देने के लिए।
गुरुकुलों का विनाश और शिक्षा का पाश्चात्यीकरण
1835 में लॉर्ड मैकाले ने भारतीय शिक्षा प्रणाली को नष्ट करने की शुरुआत की। उस समय भारत में 7.5 लाख गांवों में 7.32 लाख गुरुकुल थे— यानी लगभग हर गांव में एक आत्मनिर्भर शिक्षा केंद्र। यह गुरुकुल निःशुल्क शिक्षा, आत्मनिर्भरता और संस्कृति के केन्द्र थे।
परंतु आज? देश में केवल 4,500 गुरुकुल शेष हैं जबकि 24,000 से अधिक मदरसे और 30,000 से अधिक मिशनरी स्कूल विदेशी फंडिंग से संचालित हो रहे हैं।
यह किस प्रकार की धर्मनिरपेक्षता है, जो अपनी जड़ों को ही उखाड़ देती है?
रीवा: कभी उच्च न्यायालय का केंद्र, आज संघर्षरत
रीवा, जिसे कभी विंध्य क्षेत्र का न्यायिक ध्वज माना गया था, 1948-1956 के बीच उच्च न्यायालय का केंद्र रहा। लेकिन आज यह खंडपीठ से भी वंचित है। उपभोक्ता फोरम जैसी आवश्यक संस्थाएं यहां आज भी सपना बनी हुई हैं।
राजस्व बोर्ड की लिंक कोर्ट तो बनी, लेकिन सुनवाई के लिए अधिकारी तक नियुक्त नहीं हो पाए। क्या यह न्याय का मज़ाक नहीं है?
मोदी सरकार की पहल: आशा की किरण
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने भारतीय दंड संहिता (BNS) लागू कर कुछ हद तक अंग्रेजों के बनाए कानूनों को बदला है।
▪️ IPC की 511 धाराओं के स्थान पर BNS में 358 धाराएं हैं
▪️ 175 धाराएं बदली गईं
▪️ 18 नई जोड़ी गईं
▪️ 22 को समाप्त कर दिया गया
यह बदलाव स्वागत योग्य है। लेकिन क्या इतना ही पर्याप्त है?
न्याय की देवी की आंखों से पट्टी हटाने का समय
आज जब रीवा में न्याय का नया मंदिर बन रहा है, तो यह सवाल उठाना ज़रूरी है — क्या न्याय की देवी की आंखों से पट्टी हटेगी? क्या वह अब भारतीयता की आंखों से देखेगी?
क्या अब वह न्याय उन लोगों को देगी, जिनकी न्याय प्रणाली कभी अक्षपाद गौतम, वात्स्यायन, नारद, शुक्र जैसे ऋषियों ने रची थी?
क्या आज का न्याय उन पवित्र ग्रंथों से प्रेरणा लेगा, जिनमें राज्य धर्म, नीतिशास्त्र और धर्मन्याय का संगम था?
भारत के लिए एक न्यायिक पुनर्जागरण आवश्यक
हम एक ऐसे दौर में हैं जहां राष्ट्रभक्ति के नारे तो बुलंद हैं, लेकिन न्यायिक आत्मनिर्भरता अब भी अधूरी है। पश्चिमी और इस्लामिक कानूनों के बर्बर उदाहरण सामने हैं— संगे-सार जैसी सजाएं आज भी कई देशों में प्रचलित हैं। ऐसे में भारत को अपनी न्याय प्रणाली को उसकी जड़ों से जोड़ना होगा।
यह समय है भारतीय न्याय प्रणाली के भारतीयकरण का। कानून सिर्फ किताबों में न रहें, वे जीवन में न्याय बनकर उतरें।
रीवा की उम्मीद, भारत की पुकार
रीवा का नया जिला न्यायालय भवन एक शुरुआत है। पर यह भवन तब तक अधूरा है जब तक इसमें भारतीय आत्मा नहीं बसती।
यह देश के लिए विचार करने का समय है —
▪️ क्या हम अब भी अंग्रेजों की न्याय प्रणाली के पिंजरे में कैद हैं?
▪️ क्या हमारी न्याय प्रणाली भारतीय दर्शन, समाज और संस्कृति को प्रतिबिंबित करती है?
हमारे पास अवसर है। रीवा से शुरुआत हो सकती है। और पूरे भारत में एक नई न्याय क्रांति का आह्वान किया जा सकता है।
✍️ मदन मोहन गुप्त
लेखक वरिष्ठ सामाजिक चिंतक हैं और भारतीय न्यायिक परंपरा के अध्येता हैं।
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