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राष्ट्रवाद के पुरोधा डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी: एक राष्ट्र, एक विधान, एक पहचान
"opinion" by Prahlad Singh Patel

भारत के राजनीतिक, सांस्कृतिक और वैचारिक इतिहास में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक ऐसे पुरुषार्थी व्यक्तित्व रहे हैं जिन्होंने राष्ट्र को एकसूत्र में पिरोने के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया।
वे न केवल एक विद्वान शिक्षाविद थे, बल्कि एक जुझारू राष्ट्रनायक भी, जिन्होंने पद-प्रतिष्ठा और सुख-सुविधाओं से ऊपर उठकर अखंड भारत के विचार को कर्म से जीवित रखा।
राष्ट्रवाद की परिभाषा: मुखर्जी की दृष्टि से
डॉ. मुखर्जी के लिए राष्ट्रवाद कोई चुनावी नारा नहीं, बल्कि जीवन का संकल्प था। उनका प्रसिद्ध वाक्य – "एक देश, एक विधान, एक निशान" – महज एक नारा नहीं, बल्कि एक वैचारिक क्रांति थी। यह विचार विशेष रूप से जम्मू-कश्मीर के लिए था, लेकिन आज यह पूरे राष्ट्र के लिए प्रासंगिक है।
आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा प्रतिपादित "सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास" जैसे मंत्र, डॉ. मुखर्जी की मूल सोच का ही परिष्कृत रूप हैं, जिनमें राष्ट्र की समरसता, अखंडता और समता की भावना स्पष्ट झलकती है।
पुरुषार्थ और त्याग का प्रतीक
6 जुलाई 1901 को जन्मे डॉ. मुखर्जी उच्च शिक्षित और समृद्ध परिवार से थे। उनके पिता सर आशुतोष मुखर्जी विख्यात शिक्षाविद थे। डॉ. मुखर्जी ने इंग्लैंड से कानून की पढ़ाई पूरी की और महज 33 वर्ष की उम्र में कोलकाता विश्वविद्यालय के कुलपति बन गए। लेकिन विलासिता की राह छोड़कर उन्होंने राष्ट्रसेवा का कठिन मार्ग चुना।
उनकी दृष्टि में पुरुषार्थ का अर्थ था – राष्ट्र के लिए कर्म। यही कारण है कि उन्होंने धारा 370 का विरोध किया और "अखंड भारत" के लिए बलिदान का मार्ग अपनाया।
वैचारिक दृढ़ता और बलिदान
1953 में जब वे कश्मीर की यात्रा पर गए, तो वहां उन्हें गिरफ्तार कर नजरबंद कर दिया गया। इसी दौरान रहस्यमयी परिस्थितियों में उनका निधन हुआ। आज भी यह एक अनसुलझी गुत्थी है, जिसे भारतवासी न्याय की निगाह से देखते हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने 2018 में राजगढ़ की एक सभा में कहा था, "डॉ. मुखर्जी मानते थे कि कोई भी राष्ट्र अपनी ऊर्जा से ही सुरक्षित रह सकता है।" यही ऊर्जा आज भारत को आत्मनिर्भर और वैश्विक नेतृत्व की दिशा में अग्रसर कर रही है।
भारत के उज्ज्वल भविष्य की नींव
डॉ. मुखर्जी ने जो वैचारिक दीप जलाया, वह आज करोड़ों भारतीयों के भीतर आत्मबल और राष्ट्रीयता की चेतना के रूप में प्रज्वलित है। आत्मनिर्भर भारत और 2047 तक विकसित राष्ट्र बनने का जो सपना आज संजोया जा रहा है, उसकी जड़ें उसी दिन पड़ गई थीं, जब डॉ. मुखर्जी ने राष्ट्रीय एकता को सर्वोच्च पुरुषार्थ घोषित किया था।
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